योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः।। (मनुस्मृति श्लोक २/१६८)
अर्थात् जो स्वयं को द्विज अर्थात् ब्राह्मण, गुरु, संत आदि कहता है पर वेदों का अध्ययन नहीं किया बल्कि कोई और ही किताबें पढ़ने में श्रम करता है, वह जीवित रहता हुआ ही अपने शिष्यों और वंश सहित शूद्र भाव को प्राप्त होता है।
भाव यह है कि जो मनुष्य स्वयं को गुरु कहता है और वेदों का अध्ययन नहीं करता, योगाभ्यास, तप, साधना नहीं करता और अन्य ही मनुष्यों द्वारा लिखी पुस्तकों को पढ़ने में समय लगाता है और वेद-विरोधी बातें जनता को कहता है, तो ऐसा गुरु अपने वंश और शिष्यों सहित अनगिनत नीच योनियों में जन्म लेता है और दु:ख भोगता है।