स्वामी राम स्वरूप जी, योगाचार्य, वेद मंदिर (योल)
सम्राळन्यः स्वराळन्य उच्यते वां महान्ताविन्द्रावरुणा महावसू।
विश्वे देवास: परमे व्योमनि सं वामोजो वृषणा सं बलं दधुः॥ (ऋग्वेद ७/८२/२)
अर्थ – मंत्र में भी परमात्मा ने राजधर्म का उपदेश किया है| राजपुरुष उन्हें कहते हैं जो राजनीति को जानने वाले एम.पी., एम.एल.ऐ. इत्यादि होते हैं| ऐसे राजपुरुषों को परमात्मा ने उपदेश दिया है कि हे राजपुरुषों! आप (अन्यः) एक को (सम्राट) सम्राट बनाओ (अन्य:, स्वराट्) एक को स्वराट् बनाओ| (महान्तौ) हे महानुभाव (इंद्रा वरुणा) हे आचार्य तथा उपदेशक (वां) तुम्हें (उच्यते) यह उपदेश है कि (वां) तुम (विश्वे, देवासः) सम्पूर्ण विद्वान् (ओजः) अपनी सामर्थ्य से (परमे व्योमनि) इस विस्तृत आकाश मंडल अर्थात् सम्पूर्ण पृथिवी पर (सं) उत्तम से उत्तम (महावसू) बड़े धनों के स्वामी हो जाओ और (वृषणा) आप सब लोग मिलकर (सं) सबसे उत्तम (बलं, दधुः) बल को धारण करो|
भावार्थ – राजपुरुषों को आदेश है कि वह ठीक प्रकार से राज्य चलाने के लिए अपने में से एक को सम्राट बनाओ| इन नियमों के अनुसार महाभारत काल तक पूरी पृथिवी का एक ही सम्राट होता था| जैसे मनु, क्षिप्त, विक्षिप्त, कुक्षि, सगर, दलीप, हरिश्चंद्र, ययाति, अज, दशरथ, श्री राम, युधिष्ठिर, आदि| परन्तु अब महाभारत काल के पश्चात् वेद मार्ग पर न चलने के कारण पृथिवी टुकड़ों में बंट गई| जहाँ पहले शांति, भाईचारा, आदि गुण प्रजा में थे वहाँ वेद विद्या के अभाव में हम अधिकतर गुणहीन बनते चले गए| सम्राट प्रजा का स्वामी होता था और सम्राट तथा प्रजा में पिता-पुत्र जैसा व्यवहार होता था| सम्राट के अतिरिक्त दूसरा स्वराट् पुरुष चुना जाता था| स्वराट् उसे बोलते हैं जो स्वतंत्रता-पूर्वक सुख दुःख का विचार कर सके| और सम्राट तथा स्वराट् एक दूसरे के सहायक हों| परन्तु वेदों में बताये सम्राट तथा स्वराट् पुरुषों का चयन तथा परम्परा सब लुप्त हो गई है|