स्वामी राम स्वरूप जी, योगाचार्य, वेद मंदिर (योल) (www.vedmandir.com)
ओ३म् अव द्रुग्धानि पित्र्या सृजा नोऽव या वयं चकृमा तनूभि:। अव राजन्पशुतृपं न तायुं सृजा वत्सं न दाम्नो वसिष्ठम्॥ (ऋग्वेद ७/८६/५)
(राजन्) हे परमेश्वर आप (द्रुग्धानि, पित्र्या) माता-पिता की प्रकृति से (नः) जो दोष हमारे में आए हैं [भाव यह है कि हे प्रभु उन दोषों को दूर करो। जैसे परिवार में आनुवांशिक रोग – रक्तचाप, कैंसर, मधुमेह इत्यादि रोगों का नाश करो। अथवा मैंने पाप कर्मों से अपना स्वभाव बना लिया है, उसे दूर करें। यहां यह समझना आवश्यक है कि केवल प्रार्थना में कोई असर नहीं होता जब तक प्रार्थना के अनुकूल पुरुषार्थ ना किया जाए। अतः हम नित्य वैदिक साधना की ओर अग्रसर रहें, वेदों की शिक्षा को जीवन में उतारें।] इसी प्रकार अन्य चार प्रार्थनाएँ इस मंत्र में है।
प्रार्थनाएँ हैं कि हे प्रभु (या) जिनको (वयं) हमने (तनूभिः) शरीर द्वारा पाप (चकृम) किया है (अव) और जो (पशुतृपं) पशुओं के समान विषय वाली वृत्ति तथा (तायुं न) चोरों जैसे हमारे स्वभाव हैं, उनको (सृज) दूर करके (दाम्नः) रस्सी के साथ बँधे हुए (वत्सम्) वत्स के (न) समान (वसिष्ठं) विषय-विकारों में लिप्त मुझको (अव, सृज) मुक्त कीजिए।
भावार्थ – मंत्र में विषय-विकारों में डूबे हुए प्राणी की परमेश्वर से प्रार्थना है कि हे परमेश्वर ऊपरलिखित मेरी प्रार्थना सुनो और मुझे विषय-वासना मुक्त करो। ऋग्वेद मंत्र १/१०/५ में कहा जो जिज्ञासु वेद विद्या व सत्य को समझकर परमेश्वर की नित्य स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं ईश्वर उनके हृदय में वेद मंत्रों के अर्थों को प्रकाशित करके उन्हें सुख देता है, फलस्वरूप उन जिज्ञासुओं में विद्या और पुरुषार्थ कभी नष्ट नहीं होते। इस कारण जो-जो पदार्थ हम ईश्वर से प्रार्थना के साथ चाहते हैं वह पदार्थ अत्यंत पुरुषार्थ के द्वारा ही प्राप्त होते हैं, केवल प्रार्थना मात्र से नहीं।