यज्ञ में आशीर्वाद मिलना आजकल असंभव है। जो भी मिल रहे हैं वो अनमोल हैं। वेदों में भगवान ने कोई भी विषय नहीं छोड़ा है। इन मंत्रों में औषधियों का ज्ञान है। वेदों में तिनके से लगाकर ब्रह्म तक वर्णन किया है। पंचतन्मात्राणि का भी ज्ञान है। हम वेद सुने। इधर-उधर हम निराधार ईश्वर को ढूंढते फिर रहे हैं। वह ईश्वर विद्वान से साफअंदर से आवाज़ निकाल कर कह रहा है कि मैं वेदों में हूँ।
वाल्मीकि रामायण सच्ची पुस्तक है। आप्त ऋषि का वचन प्रमाण है। अतः वाल्मीकि ऋषि का वचन प्रमाण है। हम ऋषियों की पुस्तकें पढ़ें। वाल्मीकि जी लिख रहे हैं कि जब रावण का बेटा मारा गया तो वह क्रोध में निकला और उसने श्री राम लक्ष्मण और सब बड़े-बड़े योद्धाओं को मार कर बेहोश कर दिया। जब जामवंत ऋषि को होश आया तब उन्होंने उठते ही पुकारा कि हनुमान जी कहाँ हैं? विभीषण तब जिंदा थे। उन्होंने पूछा कि हे ऋषिवर! हमारे कमांडर तो श्रीराम है। उनके भ्राता लक्ष्मण जी हैं। आपने इनके नाम तो नहीं पुकारे और हनुमान जी को पुकार रहे हो। इनके सामने तो हनुमान जी कुछ भी नहीं है। तब उन ऋषि ने कहा कि देखो विभीषण, अगर हनुमान जी जिंदा है तो सब जिंदा हैं। नहीं तो समझो कि सब मर गए। उन्होंने हनुमान जी को बताया कि आप इस पर्वत पर जाकर संजीवनी बूटी लेकर आओ और वो वहाँ जहाज में जाकर उसको भरकर लेकर आए। उस का रस निकालकर सबको दिया। और सब जो मरने की कगार पर थे वे सब जिंदा हो गए थे। रात में विश्राम करके सुबह सब युद्ध के लिए तैयार हो गए थे।
यह कथा बिल्कुल झूठी नहीं है क्योंकि यह ऋषि का लेख है और सब सच है। यह विद्या विद्वान जानते हैं और अविद्वान नहीं जानते हैं। यह जो जड़ी बूटियां हैं सब इंसान को आयु देने वाली हैं और इसकी हमें अब पहचान नहीं है।
ऋग्वेद का दूसरा मंडल प्रारम्भ होता है। ये ईश्वर की स्तुति के मंत्र हैं। ईश्वर स्वयं कहता है कि मैं वेदों में हूँ। यह व्याख्या और कहीं भी नहीं है।
ओ३म् त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्यः।
त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य संभुजं त्वमंशो विदथे देव भाजयुः॥ (ऋग्वेद मंत्र २/१/४)
यह तो सरल सी संस्कृत है कि आप ही अग्नि हो, इंद्र हो, राजा हो, वरुण हो, विष्णु हो। भगवान ने मंत्र में इतना ज्ञान भर दिया है, इसको छोड़ कर जीव बाहर खोजते फिर रहे हैं। शरीर के अंदर ही ईश्वर मिलता है, यह ज्ञान किसी को नहीं है। अगर होगा तो वह योगाभ्यास, यज्ञ से अंदर ढूंढेगा। दुनिया बाहर ही बाहर ढूंढ़ती है।
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (योग शास्त्र ३/१)
देश का मतलब है – स्थान। चित्त को शरीर के भीतर किसी भी स्थान पर लगाओ, यह ध्यान है। कृष्ण महाराज कह रहे हैं कि ‘भ्रुवोर्मध्ये’ (श्रीमद्भगवद्गीता ८/१०)। इस सूत्र के अनुसार कहीं भी लगाओ शरीर में – चाहे हृदय में, चाहे नासाग्रे, पर बाहर नहीं। बाहर किसी ने भी ध्यान लगाया तो वह बाहर का ही हो गया। बाहर माया है और वह माया में लिप्त हो जाएगा। ज्ञान तो वेद हैं।
मनुष्य के बीच में आप (ईश्वर) पवित्र हैं। हम आप को स्वीकार करें। ध्यान की पद्धति, योगाभ्यास और यज्ञ के अनुसार तुझे प्राप्त करें।
ओ३म् त्वमग्ने त्वष्टा विधते सुवीर्यं तव ग्नावो मित्रमहः सजात्यम्।
त्वमाशुहेमा ररिषे स्वश्व्यं त्वं नरां शर्धो असि पुरूवसुः॥ (ऋग्वेद मंत्र २/१/५)
यही भगवान का विषय पीछे से चला आ रहा है। भगवान ने इस मंत्र में विद्वान की प्रशंसा की है और कह दिया – आप चारों वेदों को जानने वाले हैं। और जिस पुरुष का अग्निहोत्र के समान उपकार और पवित्र कर्म, विद्वान के समान न्याय करने वाले हैं और अग्नि विद्या को जानने वाले हैं, यह ब्रह्म है।
नचिकेता गुरु के पास अग्नि विद्या जानने के लिए गया था और गुरु ने बोला कि तीनों लोक का राज ले लो, धन ले लो, सुंदर नारी ले लो, रथ ले लो, सब कुछ ले लो। नचिकेता कहा कि नहीं चाहिए। वह किसी में नहीं फंसा और.आज अमर है। एक में भी अगर फंसा होता तो उपनिषद् में उसका नाम नहीं आता।
इंसान बाहर को भागते हैं। कोई पहाड़ों में ढूंढता है, या मंदिर में ढूंढता है, इत्यादि। सच तो अंदर है। ब्रह्मा के बगैर नहीं जाना जाता है। यज्ञ करने वालों के समान अहिंसक, यह सब ब्रह्मा के गुण हैं।
अग्निहोत्र आदि जो हम करते हैं और उसमें जो आहुति डालते हैं। अग्नि का हमने सेवन किया और अग्नि ही तुम्हारी रक्षा करेगी। यह अग्नि, भौतिक अग्नि और ईश्वर भी तुम्हारी रक्षा करेंगे इसलिए मैं कहता रहता हूँ कि आप बड़े भाग्यशाली हैं।अग्निहोत्र और यज्ञ ईश्वर का सबसे उत्तम कार्य है। यह आपकी रक्षा करते हैं। जैसे अग्नि की सेवा करते हैं ऐसे हम माता, पिता, गुरु की सेवा करें। बच्चों को उपकार करें, उनको शिक्षा दे, यह भी यज्ञ है। इस चीज को समझ कर आप अग्निहोत्र और यज्ञ करते हो तो यह अग्नि जो है तुम्हारी रक्षा करता है। ईश्वर भी, अग्नि भी तुम्हारे परिवार की भी रक्षा करता है। तो करोना कहाँ से आ जाएगा? बड़ी श्रद्धा से (श्रत् धा इति श्रद्धा) यज्ञ और हवन करो। अगर आपने बुराई हैं, संशय हैं, पाप हैं तो अग्नि आपकी रक्षा नहीं करेगी। श्रद्धा से आप अग्निहोत्र करते रहो। आपकी और परिवार की रक्षा होती रहेगी। गुरु कृपा है।