दिल तो मेरा कहता है कि सारा दिन में वेद उच्चारण करो पर भगवान का नियम है कि वृद्धावस्था आती ही है। इस मंत्र को देखो:
विद्वान् को तो भगवान नहीं छोड़ा ही नहीं है। इंसान ने तो विद्वानों को छोड़ दिया है। वे हंसी-मजाक, पाप आदि में लगे रहते हैं और दुःख भोगते हैं। भगवान देखो ऋषिओं को साथ-साथ रखता है।
ओ३म् धिया चक्रे वरेण्यो भूतानां गर्भमा दधे। दक्षस्य पितरं तना॥ (ऋग्वेद ३/२७/९)
हे मनुष्यो! यहाँ (वरेण्यः) मतलब विद्वान का, आचार्य का, गुरु का वरण करते है। प्रातः काल की वेला है, छुट्टी का दिन है, बड़े गौर से सुनो। वैसे रोज ही दोनों टाइम यज्ञ करने का मन करता है।
ईश्वर गुरु का कितना आदर कर रहा है कि जो ईश्वर वरण करने के योग्य है, गायत्री में वरेण्यं ईश्वर के लिए है और यहां वरेण्यः गुरु के लिए है। गुरु को धारण करो, वरण करो। जो वरण करने योग्य श्रेष्ठ पुरुष को बुद्धि के द्वारा शिक्षा से (दक्षस्य) चतुर विद्यार्थी पुरुष को, आचार्य पिता की तरह पालन करता है। जैसे पिता बच्चों का पालन पोषण करता है वैसे ही आचार्य अपने शिष्य का पालन-पोषण करता है। विद्या के द्वारा, (भूतानाम्) प्राणियों के। विद्या उत्तम गुण है, उन गुणों को (आ) (दधे) मतलब (गर्भम्) गर्भ को सब प्रकार से धारण करें।
मतलब वह आचार्य विद्या के गुणों को हृदय में धारण कराए और शिष्य उसको धारण करें। तो धारण करने वाले गुरु आचार्य जो है वह जैसे पिता पालन-पोषण करता है वैसे वह अपने शिष्यों का पालन-पोषण करें। मुझे लोगों ने लूटा है क्योंकि मैंने सबके हृदय में विद्या स्थापित करने का प्रयत्न किया। अभी तो आप लोग सेवा करो। सेवा से मुक्ति है क्योंकि मेरी आयु ऐसी हो गई है।
गर्भम् का अर्थ यहाँ हृदय है। हृदय में गुरु विद्या को स्थित करता है। मेरे दिल में तो यह भी विचार आया है कि आप गुरुद्वारे में जाओ वहाँ रोज सुबह एक वाक्य निकलता है कि आज गुरु महाराज की क्या शिक्षा है। आपको यह समझना चाहिए कि आज हमारे हृदय में क्या विद्या स्थापित कर रहे हैं? आज का भाव यह है कि लोग श्रेष्ठ पुरुष को धारण करें। आचार्य विद्या से पालन-पोषण करते हैं। इसको ध्यान में रखो कि हमारे जितने भी ऋषि मुनि हुए हैं वह अपने शिष्यों को ऐसे ही पालन करते थे।
भूतानाम्, भूत का अर्थ पंच भौतिक शरीर है मतलब प्राणियों के और गर्भम् का मतलब हृदय है। आचार्य विद्या को शिष्य के हृदय में धारण कराएं। विद्या तो वेद है। वेद से सब कुछ निकला है। भगवान समझा रहे हैं कि ऐसे आचार्य अगर मिल गए तो विद्या को ग्रहण करें। अपनी आत्मा के समान उसकी सेवा करो। जैसे अपना भला चाहते हो, अपना सुख जाते हो वैसे आचार्य को सुख दो। उससे ज्यादा सुख दो। दुःख मत दो।
जैसे विद्यार्थी अध्यापक लोगों की इच्छा अनुसार कर्म करते हैं वैसे ही विद्वान लोग भी विद्या दान कर के विद्यार्थियों की इच्छा अनुकूल उत्तम गुण देकर प्रसन्न करें। यह गुरु शिष्य शुरू से चले जा रहे हैं। यह मत भूल जाना कि आचार्य के गुणों को हृदय में धारण करता है, तो उसकी सेवा करो। जैसे पत्नी अपने गर्भ को धारण करती है और श्रेष्ठ संतान उत्पन्न करती है वैसे ही विद्वान लोग मनुष्य की बुद्धि में उत्तम व्यवहारों को उत्पन्न करें। इनकी सेवा करो। इस लालसा से सब विद्या सुनो क्योंकि देव योनि में आना जरूरी है और मोक्ष प्राप्त करना जरूरी है।