ओ३म् अध स्वप्नस्य निर्विदेऽभुञ्जतश्च रेवत:। उभा ता बस्रि नश्यतः॥ (ऋग्वेद मंत्र १/१२०/१२)
यह जो भगवान का ज्ञान है, वो कमाल का है। जो ऐश्वर्यवान् न देनेवाला वा जो दरिद्री उदारचित्त है, अर्थात् अमीर है पर दानी नहीं है और दूसरा गरीब है पर उदारचित्त है – ये दोनों ही आलसी होते हैं और दोनों ही दिन रात दु:ख भोगते रहते हैं। कैसे दु:ख – मानसिक और शारीरिक। पैसे वाला जब दानी नहीं होता तो उसको कभी सुख नहीं मिलता है। धन अच्छा नहीं है लेकिन बहुत जरूरी है। इसलिए ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा’ (यजुर्वेद ४०/१) – त्यागपूर्वक भोग भोगो। इसको समझना है तो वृत्ति भगवान में और गुरु में रखो। जो आपको सुख मिल रहा है – परिवार से, बच्चों से, मकान से, जो भी है, आप लालच मत करो। यह धन किसी का नहीं हुआ है। (कस्य स्विद्धनम्) किसका हुआ?
ऐश्वर्यवान् है पर दानी नहीं है, वह पापी है। दूसरा दरिद्रवान् पर दिल बड़ा अच्छा है, यह भी पापी है। दलिद्री भी आलसी होता है। बैठा बैठा पैसा मांगता है, यह भी महापापी है। भगवान कहता है कि प्रयत्न करना चाहिए। नर-नारी सबको पुरुषार्थ करना है, आलसी होकर बैठना नहीं है।
‘कालो अश्व’ (महाभाष्यम्) – समय एक घोड़े जैसा है। भागते ही रहता है। आज हमने हवन को छोड़ दिया जो छूटा वह समय कभी वापस नहीं आएगा। अब तो हम दोनो समय (प्रातः और सांय) हवन के लिए तैयार हों जैसी ईश्वर की आज्ञा है।
जो काल निकल गया है वह दोबारा वापस नहीं आएगा। भगवान ही तुम्हारा रक्षक है। चारों वेदों का मुख्य विषय ईश्वर प्राप्ति है, इसको समझो। धन प्राप्ति नहीं है, संसार बसाना नहीं है। बस आना चाहे तो बसाएँ पर पता नहीं शबरी जैसे कितनों ने नहीं कमाया। मैंने भी प्रीमेच्योर रिटायरमेंट ले ली थी। मेरे जैसे मत करना। जब समय आएगा अगले जन्मों में तो वो अपने आप हटा लेगा। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना अच्छा है। बहुत पापों से इंसान बच जाता है। गृहस्थी धर्म पर चलता है और बाकी के तीनों आश्रमों को सुख देता है।
गहराइयां समझो कि जो ऐश्वर्यवान् है परंतु दान आदि नहीं देता है, दरिद्री हैं वह उदार चित है, दरिद्री तो दान दे ही नहीं सकता। तो ईश्वर कहता है कि दोनों ही आलसी हैं इसलिए लगातार यह दु:ख भोगते हैं। मानसिक भी शारीरिक की और न जाने क्या-क्या दुख भोगते हैं।
तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार अगर कोई यज्ञ में अधिकारी मिल जाए तो उस आचार्य को ‘सहस्त्राणि च रत्नानी’ – उसके चरणों में हजारों प्रकार के रत्न डालना। मैंने एक पुस्तक लिखी है – ‘Protect the Holy Cow, say Vedas’ – उसमें यह लिखा है कि राजा को ईश्वर की आज्ञा है कि वह ऊँट भर-भर के ऋषियों को सोना और पैसे दे। मैंने हजारों बार दान लेने से मना किया है। ईश्वर की कृपा ही है कि आचार्य दान को स्वीकार करें। आचार्य दान तभी स्वीकार करते हैं जब जरूरत होती है। ‘आचार्याय प्रियं धनमाहॄत्य’ (तैत्तरीयोपनिषद्) यह उपनिषद का वाक्य है कि आचार्य के लिए प्रिय धन लाख कर दो। अगर तुम्हारी आत्मा प्रसन्न है दान करने के लिए तो वह दान ईश्वर तक पहुंचा देता है।अगर दान देकर थोड़ा सा भी मन में ऐसी वैसी बात आ जाती है तो वह नर्क में पहुंचा देता है। इसलिए पिछले युगों में दिल खोलकर दान दिया जाता था।
ओ३म् उत त्या मे यशसा श्वेतनायै व्यन्ता पान्तौशिजो हुवध्यै।
प्र वो नपातमपां कृणुध्वं प्र मातरा रास्पिनस्यायोः॥ (ऋग्वेद मंत्र १/१२२/४)
यह अच्छा अच्छा ज्ञान है। एक-एक लाइन भी कमाल है। यह मंत्र कह रहा है कि गुरुजन आप लोग हमें वेदों से अच्छी शिक्षा दो वैसे ही हम भी आपके जीवन की उन्नति की कामना किया करें। आप अच्छी शिक्षा दे देकर हमारी आयु बढ़ाते हो। पाप छोड़ोगे, आहुति डालोगे, यज्ञ करोगे तो आयु तो बढ़ेगी ही बढ़ेगी – ‘आयु यज्ञेन कलपंताम’। इस मंत्र में भगवान ज्ञान दे रहे हैं कि गुरु की आयु बढ़ाने के लिए शिष्य भी कामना करें, यह भी हमारी संस्कृति है और दोनों तरफ से नि:स्वार्थ है। आचार्य सब की आयु यज्ञ करा करा के बढ़ाते हैं।
ओ३म् आ वो रुवण्युमौशिजो हुवध्यै घोषेव शंसमर्जुनस्य नंशे।
प्र व: पूष्णे दावन आँ अच्छा वोचेय वसुतातिमग्नेः॥ (ऋग्वेद मंत्र १/१२२/५)
वैद्य दवा देकरआरोग्य प्रदान करता है, ऐसे ही विद्वान सब को सुखी रखते हैं और सब की आयु को बढ़ाते हैं।
ओ३म् श्रुतं मे मित्रावरुणा हवेमोत श्रुतं सदने विश्वत: सीम्।
श्रोतु न: श्रोतुरातिः सुश्रोतु: सुक्षेत्रा सिन्धुरद्भिः॥ (ऋग्वेद मंत्र १/१२२/६)
विद्वान सब के प्रश्नों को सुनकर ठीक ठीक समाधान करें। आज वेदों की है चीजें छुप गई हैं। आज किसी को प्रश्न करके देखो बस फिर आपको बोलेंगे धर्म का मामला है, तुम प्रश्न नहीं करोगे। जबकि चारों वेदों में शिष्य को विद्वान से प्रश्न करने का अधिकार है और शिष्य भी संशय दूर होते-होते ही सेवक बनते हैं।
विद्वान लोग बोलते हैं वो सब श्रद्धा से सुने। जब जिज्ञासु प्रश्न करते हैं तो विद्वान् गौर से प्रश्न सुनकर उत्तर दें। सुनना तप है।