यह मैंने बहुत बार समझाया है और आपको पक्का समझ में आया होगा। यह जो आप मंत्र उच्चारण कर रहे हो, यह बड़ा दुर्लभ है। यह ईश्वर की प्रार्थना स्तुति और उपासना है।
से बस कभी कम कमजोर मत करना। कमजोर का मतलब है कि यह सोच कि हम क्या बोल रहे हैं? हम प्रतिदिन उपासना करें तो हमारी जिंदगी वैसे ही सुधर जाएगी।
यह विशेष प्रार्थना ईश्वर ने वेदों में कही है कि बस गुरु (विद्वान्) प्रसन्न होना चाहिए। अगर पिता नाराज़ रहेंगे तो बेटा-बेटी क्या सुख पाएंगे? वैसे ही अगर परम पिता गुरु नाराज़ हो गया तो आपके लिए विश्व का खेल खत्म हो जाएगा। तो तन मन धन से उनको प्रसन्न रखो। जितनी बार आपके पास समय है यह हवन कर लो।
मैं यह चाहता हूँ कि मेरे सारे अधिकारी शिष्यों की आयु लंबी हो और वे देव योनि में आए। फिर कभी भी वो जीव कुत्ता, बिल्ली आदि में नहीं भटकेगा। वेद में कहा कि अगर आप यज्ञ करते हैं और दक्षिणा नहीं देते तो आपके यज्ञ का पुण्य खत्म हो जाता है। यह दक्षिणा आपको भव सागर से पार लगाती है और गुरु को प्रसन्न रखती है।
यज्ञ यज्ञं गच्छ (यजुर्वद ८/२२) यह यज्ञ ईश्वर को प्राप्त हो। यज्ञं मतलब ईश्वर है। यज्ञ का संबोधन किया है कि यह यज्ञ तो परमेश्वर को प्राप्त हो। यह बहुत बड़ा रहस्य में ज्ञान है कि आप यज्ञ में कुछ भी कर रहे हो (जैसे कोई भी सेवा कर रहे हो) तो यज्ञ में ईश्वर की पूजा हो रही है। यज्ञ में ईश्वर प्रकट है। ब्रह्मा बैठा हुआ है उसमें भी ईश्वर प्रकट है।
देवाः गन्म ज्योति अभूम (यजुर्वेद ८/५२) – गुरुदेव आ गए तो ज्योति आ गई है। तो आपका यज्ञ का एक एक कर्म ईश्वर को प्राप्त हो रहा है। अगर आप गुरु को दान दे रहे हो वह ईश्वर स्वीकार कर रहा है। ईश्वर यज्ञ में प्रकट है और दूसरा ब्रह्मा में प्रकट है, तो वह स्वीकार कर रहा है। उसका सारा पुण्य आपको दे रहा है। गुरु के द्वारा ईश्वर स्वीकार कर रहा है अगर आचार्य में ब्रह्म प्रकट है।
ईश्वर के स्तुति उपासना मंत्रों को बड़े ही प्यार से उच्चारण करो। मंत्र कहता है कि उच्चारण का ही बहुत बड़ा पुण्य है कि पहले गुरु ने उच्चारण किया फिर आपने किया।
ओ३म् भूर्भुवः॒ स्व᳕र्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव॑ वरि॒म्णा।
तस्या॑स्ते पृथिवि देवयजनि पृ॒ष्ठे᳕ऽग्निम॑न्ना॒दम॒न्नाद्या॒याद॑धे॥ (यजुर्वेद ३/५)
इस भूमि पर देश यज्ञ करते हैं इसलिए यह भूमि देवयजनि है। आज देव की कमी पड़ गई है फिर भी कहीं देव यज्ञ करते ही रहते हैं।
‘ओ३म् अयंत इध्म आत्मा जातवेदस ते ने’ – यह मंत्रों को प्रेम से बोलोगे तो यह चेतन भ्रम है। यह पांच आशीर्वाद बहुत जबरदस्त है। ना जाने आकर क्या समय आता है लेकिन जो यज्ञ करता है, हवन करता है यह पांचों आशीर्वाद हमेशा उनके साथ होते हैं। किसी भी स्थिति में अन्न की और धन की कमी नहीं होगी। यह पांचो आशीर्वाद को जीवन में संचित करके रखो। किसी भी परिस्थिति में हवन चलने चाहेंगे।
ओ३म् श्रुतं गायत्रं तकवानस्याहं चिद्धि रिरेभाश्विना वाम्। आक्षी शुभस्पती दन्॥ (ऋग्वेद १/१२०/६)
वेद में अध्ययन मनन और चिंतन कहां है। यह मंत्र देखो यह भी ऐसा ही कुछ आया है। वेद में एक से एक वाणी भरी पड़ी हैं। यह भी मंत्र कमाल का है। मंत्र में भी ईश्वर ने विद्वान शब्द का प्रयोग किया है। जैसे विद्वान कहें वैसे कर्म करो। विद्वान प्रश्न भी करें तो उसका उत्तर दो। यह सारा अमृत है।
जैसे विद्वान की सम्मति है वैसे ही कर्म करो। बहुत सारे हमारे बेटा-बेटी यह मानते हैं। पता नहीं क्यों मानते हैं? शायद इन्होंने तरना होगा, तभी विद्वान की बात मानते हैं। दानी का आसन ईश्वर के आसन के बराबर बताया है।
विद्वान से सदा प्रश्न पूछो, यह तुम्हारा अधिकार है। यह नहीं होता कि धर्म का मामला है चुप हो जाओ। विद्वान इधर-उधर की बात नहीं करेगा, वह सीधा वेद की ही बात करेगा। ज्ञान भी देगा तो उसका सहारा वेद है। कोई भी समाधिस्थ पुरुष या वेदों का ज्ञाता होना चाहिए, वह एकदम से वेद ही छेड़ेगा। अमृत का मतलब है वेद। जो वाणी कभी मरती नहीं है, वह वेद है।
जो मेरे बेटा-बेटी बड़े जा रहे हैं, वे माता, पिता, गुरु आदि की सेवा करेंगे। कोई अगर सेवा नहीं करता तो मुझे मत कहना कि क्या शिष्य है। मैं तो शिक्षा देता हूँ, अगर शिष्य आचरण में नहीं लाता तो यह उसका पाप है। मैं बार-बार कहता हूं कि पाप छोड़ो। कुछ भी हो बुजुर्ग की सेवा करनी है। जो बुजुर्ग अधिकारी नहीं है उनके बारे में ठीक से निर्णय लो पर उनका अपमान नहीं करना चाहिए।
घरों में माता पिता गुरु की सेवा होनी चाहिए। वहां तो ‘जीवें शारद: शतं’ – 100 वर्ष से ज्यादा भी जिओ पर आलस्य छोड़कर, पुरुषार्थ से गृहस्थ को स्वर्ग बनाएंगे – यह सब वेद वाक्य हैं। (लिंक: विद्वानों का संग भजन)
जितना भी ज्ञान दे रहे हैं वह काफी है पर आप हवन कभी मत छोड़ो।
यह मंत्र कह रहा है कि जो विद्वान ठीक समझते हैं वही करो, और सबको अधिकार है कि वह विद्वान से प्रश्न करें। यह सीधा कहा है कि सत्य और असत्य का आचरण करें, मतलब सत्य रखें और असत्य का त्याग करें।
झूठ का त्याग नहीं करोगे, पाप का त्याग नहीं करोगे, तो ईश्वर ने आप की दुर्गति कर देनी है। यह संसार भवसागर है। कृष्ण महाराज ने यही कहा। आपके मन में यह बात हो रही होगी कि कृष्ण महाराज कह रहे हैं तो प्रमाण है, और अगर मैं कह रहा हूं तो शायद होगा।
ऋषि शब्द प्रमाण है। जो बोल रहे हैं वह सत्य है। उसके लिए वेद देखने की जरूरत नहीं है। यह चारों वेदों का ज्ञान मैं तुम्हें समझा रहा हूं। आप्त ऋषि का शब्द ही प्रमाण है, वह कभी झूठा नहीं होता। और एक वेद प्रमाण है। वेद self-proof है। ऋषि भी self-evidence है। यह बड़ी गहरी विद्या है। गुरु का मिलना ही बड़ा मुश्किल हो जाता है। फिर मिलकर उसको रिझाना कितना कठिन है। भजन से बड़े उपदेश होते हैं। भगवान ऐसा में सामवेद में कहा कि गाकर सुनाओ, यह इत्था वाणी है।
असत्य का त्याग करो और आलस्य का त्याग करो। भगवान ने कहा कि जो विद्वान् पूजित होता है, जिसका सत्कार किया जाता है, तो वह विद्या का प्रचार करता है। तो उसका सत्कार करो। जो मूर्ख हैं वह भी गुरु को मानकर शिक्षा ले। आप लोगों में यह विद्या आती रहती है। आप लोगों ने जो वेदों को आप्त ऋषि और मनुष्यों द्वारा सुना वह अन्य को भी उपदेश करो। जो आप सुनते हो उसका मित्रों में और इधर-उधर प्यार से प्रचार करो। सौ में से अगर पाँच भी सुन ले तो वही बड़ी बात है। जो भी गाते हैं, सुनते हैं और जो आगे सुनाते हैं, भगवान उनकी रक्षा करता है।
प्रलय में जग प्रकृति के रूप में था उसको ‘इन्द्रस्य विराजति’ ईश्वर की शक्ति ने प्रकट कर दिया। यह जो रचना है उसके आगे कुछ भी नहीं है। इस रचना को देख कर कोई कहे कि वह कितना महान है तो वेद कह रहा है कि यह रचना तो इसके आगे कुछ भी नहीं है।