स्वामी राम स्वरूप जी, योगाचार्य, वेद मंदिर (योल) (www.vedmandir.com)
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ १४/४/२-३/२९ में बहुत सुन्दर वर्णन है कि “जीवात्मा ने चाहा कि मेरी स्त्री हो और मैं संतान उत्पन्न करूँ। मेरे पास धन हो और मैं यज्ञ करूँ। इन सब कामनाओं को चाहने वाला इससे अधिक न चाहे।” भाव यह है कि भाव यह है कि जीव के पास जो चेतन रूप में परिवार और जड़ रूप में धन इत्यादि हैं, वे सब यज्ञ में सहायक सामग्री हैं और इनका उपयोग जीव यज्ञ करने के लिए करे। विद्या का सच्चा ज्ञान न होने के कारण अज्ञानवश प्राणी धन-परिवार पाकर, मोह, आलस्य एवं विषय में फंसकर, इसका उपयोग यज्ञ में नहीं करता और उसका जीवन इस प्रकार शास्त्र विरुद्ध हो जाता है।
फलस्वरूप उसे कभी भी आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं होती। भौतिक पदार्थ प्राप्त करके भी वह मृगत्रिष्णा की तरह संसार में इधर-उधर कुछ न कुछ खोजता ही फिरता है।अतः ऋषियों के प्रमाणिक एवं अनुभवशील वचनों की जीवन में अत्याधिक गम्भीरता को ध्यान में धरते हुए हम भौतिक पदार्थ तथा गृहस्थाश्रम की सम्पदा पाकर सदा अध्यात्मवाद से यज्ञादि शुभ कर्मों से जुड़े रहें।
वर्तमान में मनुष्य जाति पर दुःखों का अम्बार लग गया है। तरह-तरह की मानसिक एवं शारीरिक बीमारियों ने मनुष्य को त्रस्त किया हुआ है, ईश्वर से उत्पन्न वेद के अनुसार, इसका कारण मनुष्य द्वारा नित्य यज्ञ न करना व वेदाध्ययन न करना हैं।अथर्ववेद मंत्र ७/१०५/१ में ईश्वर ने स्पष्ट कहा है कि मनुष्य केवल वेद सुने अथवा ऋषियों के ग्रन्थ पढ़े तथा मनुष्यों के ग्रंथों से दूर रहे। आज हमें विचार करना पड़ेगा कि ईश्वर की तो कोई आज्ञा मान ही नहीं रहा क्योंकि मनुष्य वेद सुन नहीं रहा, वह तो मनुष्यकृत ग्रंथों को सुनता तथा उसके अनुसार कर्म करता है जो अधिकतर ऊपर लिखे अथर्ववेद मंत्र ७/१०५/१ के अनुसार सुखदायी नहीं हैं। उनमें वेदमंत्रों से यज्ञ करने की कोई बात नहीं कही गयी है।
ऋग्वेद मंत्र १/१३/३ का भाव है कि मनुष्य वेदमंत्र से नित्य यज्ञ करे। जो भौतिक अग्नि इस संसार में हवन के निमित्त युक्ति से ग्रहण किया हुआ प्राणियों की प्रसन्नता कराने वाला है, उस अग्नि की साथ जिह्वें हैं।अर्थात् काली – जो सफ़ेद आदि रंग का प्रकाश करने वाली है, कराली – सहने में कठिन, मनोजवा – मन के समान वेग वाली, सुलोहिता – जिसका उत्तम रक्त वर्ण है, सुधूम्रवर्णा – जिसका सुन्दर धुमलासा वर्ण है, स्फुलीङ्गिनी – जिससे बहुत सी चिंगारियाँ उठती हों तथा विश्वरूपौ – जिसका सब रूप हैं। ये प्रकाशमान और ललयमाना – प्रकाश से सब जगह जाने वाली सात प्रकार की जिह्वा हैं अर्थात् सब पदार्थों को ग्रहण करने वाली होती हैं। इस उक्त सात प्रकार की जीभों से सब पदार्थों में उपकार लेना मनुष्यों को चाहिए।