स्वामी राम स्वरुप जी, योगाचार्य, वेद मंदिर (योल) (www.vedmandir.com)
राजा युधिष्ठिर ने शरशय्या पर लेटे हुए पितामह भीष्म से अहिंसा धर्म के विषय में पूछा –
मैं जानना चाहता हूँ कि मन, वचन अथवा कर्म से हिंसा का आचरण करने वाला मनुष्य अपने दुःख से छुटकारा कैसे पा सकता है?
भीष्मजी बोले – ब्रह्मवादी महात्माओं ने हिंसा-दोष में प्रधान तीन कारण बतायें हैं: (१) मन (मांस खाने की इच्छा) (२) वाणी (मांस खाने का उपदेश)। (३) आस्वाद (प्रत्यक्ष रूप में मांस का स्वाद लेना)। यह तीनों ही हिंसा दोष के आधार हैं। आगे फिर भीष्मजी बोले – जो दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उसके बराबर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है। मांस तृण से, काष्ठ (लकड़ी) से अथवा पत्थर से नहीं पैदा होता। वह प्राणी की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है अतः इसके खाने में महान दोष है।
– जो पहले मांस खाने के पश्चात् उसे छोड़ देता है तो उसे बड़े भारी धर्म की प्राप्ति होती है।
– जो मनुष्य वध करने के लिए पशु लाता है, जो उसे मारने की अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो उसे खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है – ये सब के सब खाने वाले ही माने जाते हैं, अर्थात् खाने वाले के समान ही पाप के भागी होते हैं।
– संसार में अपने प्राणों से बढ़कर प्रिय कोई दूसरी वस्तु नहीं है, अतः जैसे मनुष्य अपने ऊपर दया चाहता है, वैसे ही दूसरों पर भी दया करे।
– जो जीवित रहने की इच्छा करने वाले प्राणियों का मांस खाता है, वे दूसरे जन्मों में उन्ही प्राणियों द्वारा भक्षण किये जाते हैं अर्थात् खाये जाते हैं। इस विषय में मुझे तनिक भी संशय नहीं है।